"गणेशाय नमो नमः "
वास्तुशास्त्र एवं महत्त्व :
वास्तु शास्त्र घर, भवन अथवा मन्दिर निर्माण करने का प्राचीन भारतीय विज्ञान है जिसे आधुनिक समय के विज्ञान आर्किटेक्चर का प्राचीन स्वरुप माना जा सकता है। जीवन में जिन वस्तुओं का हमारे दैनिक जीवन में उपयोग होता है उन वस्तुओं को किस प्रकार से रखा जाए वह भी वास्तु है वस्तु शब्द से वास्तु का निर्माण हुआ है। वास्तु' शब्द का अर्थ ही है 'निवास करना'; अर्थात् जहाँ-जिस भूखण्ड पर गृह, मठ, मन्दिरादि का प्रारम्भिक उद्योग कर मनुष्य निवास करता है, उसे ही 'वास्तु' कहते हैं।
दक्षिण भारत में वास्तु शिल्प की शृंखला मायन या मय या मयासुर के अनुसार निर्माण हुआ है। मन्दोदरी मयदानव की पुत्री थी। मय एक प्रसिद्ध दानव है। एक महान वास्तुकार, ज्योतिषी और तकनीकि इंजीनियर थे, लेकिन जन्म से एक दानव है ।
उत्तर भारत में वास्तु शिल्प की शृंखला विश्वकर्मा जी के अनुसार निर्माण हुआ है। भगवान विश्वकर्मा की ऐसी मान्यता है कि उन्होंने ब्रह्माजी के साथ मिलकर इस सृष्टि का निर्माण किया था।
इस तरह स्पष्ट होता है कि निवास स्थान की आवश्यकता पृथ्वी पर जन्म लेने वाले समस्त प्राणियों को होती है। सभी प्राणी अपनी-अपनी सापेक्ष आवश्यकताओं अनुरूप गृह का निर्माण करते हैं। इस निर्माण में जीवन का समग्र सुख एवं सुरक्षा का भाव सन्निहित है। असुरक्षित जीवन जीना कोई भी प्राणी नहीं चाहता। प्रत्येक जीव की भावना गृह-निर्माण के समय यही रहती है कि वाह्यशत्रु-उपद्रव एवं प्राकृतिक वातावरणादिजन्य विषम परिस्थितियों से उसे कभी कोई कष्ट न हो। ऐसा ही विचार अथर्ववेद के तृतीय काण्ड में गृहकर्त्ता के कल्याणार्थ सूक्तकार ने व्यक्त किया है।
यह सभी जानते हैं कि प्रकृति ने प्रत्येक जीव को अपनी आवश्यकतानुकूल निवास-स्थान बनाने की क्षमता एवं कौशल प्रदान किया है, तभी तो इन प्राकृतिक नियमों से आबद्ध होकर अपने सुख-दुःख का अनुमान कर जीव नित-नए भयमुक्त वातावरण में सुरक्षित स्थान की खोज करता रहता है। सभी छोटे-बड़े जीवों में अपने जीवन-निर्वाह करने योग्य गृह निर्माण की प्रवृत्ति वंशानुगत पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्राप्त होती ही रहती हैं, किन्तु मनुष्य, सचेतन प्राणी होने से नैसर्गिक गृह-निर्माण प्रकृति एवं प्रवृत्ति को नित्य अभिनव रूप प्रदान करने में तत्पर रहता है। अभिप्राय यह कि गृह निर्माण की नैसर्गिक संरचना को कोई भी जीव समय के साथ बदल नही सकता, अपितु विज्ञान को विशिष्टतावश स्वरूप परिवर्तन तो होता ही रहता है।
आपने पक्षियों के घोंसले देखे होंगे। वर्षो पहले बने हुए घोंसलों से आज के बने घोंसलों में सामान्यदृष्ट्या कोई बदलाव नहीं दिखाई देगा।
मनुष्य ज्ञान एवं शक्ति का भण्डार है, जो अपने सुख-दुःख, उचित अनुचित, उत्कर्ष - अपकर्ष का अनुमान कर भूत को झाँकते एवं वर्तमान में चलते हुए भविष्य की चिन्ता करता है। यही चिन्ता मनुष्य को अपने स्थायित्व हेतु परिष्कृत एवं सुख-समृद्धि आदि से युक्त गृह-निर्माण की ओर अग्रसर करती है, और तब लिया जाता है गृह-निर्माण का महत्त्वपूर्ण सङ्कल्प। यह निर्माण सङ्कल्प भले ही तत्काल बाह्यरूप से परिलक्षित न हो, फिर भी अन्तर्मन के किसी कोने में यह जानने की जिज्ञासा अवश्य होती है कि हम कहाँ, कैसे और किस तरह यह निर्माण करें कि हमारा सङ्कल्प पूर्ण हो। तब एक पथ-प्रदर्शक के रूप में 'वास्तुशास्त्र' ही दृष्टिगोचर होता है।
वास्तु शिल्पी विश्वकर्माजी ने कहा भी है-
वास्तुशास्त्रं प्रवक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।।
अर्थ :
यह कि लोक-कल्याण की इच्छा से ही वास्तुशास्त्र का प्रतिपादन किया गया है।
"स्त्रीपुत्रादिक भोग सौख्य जननं धर्मार्थकामप्रदम्" ॥
"जन्तूनामयनं सुखास्पदमिदं शीताम्बु धर्मापहम्" ॥
गृह-निर्माण मानव केवल अपने लिए ही नहीं करता, अपितु इनके गृहाश्रम में सहयोग प्रदान करने वाले अन्य जो भी प्राणी होते हैं, उन सबों के सापेक्ष सुरक्षात्मक निवास स्थान एवं भवन का निर्माण भी अपेक्षित हो जाता है। साथ ही दैनिक जीवन में व्यक्तिगत 'हितकाम्य' की भावना से सार्वजनिक उपयोग में आने वाले कुआँ, तालाब, मन्दिर, धर्मशाला आदि के निर्माण कार्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, और ये सभी कार्य वास्तुशास्त्र के अन्तर्गत ही आते हैं।
गृह- निर्माण में विशेषकर भौगोलिक परिस्थितियों पर ध्यान केन्द्रित करना अति आवश्यक होता है। दिशाओं के अनुसार गृह की स्थिति एवं बनावट का गृहकर्ता पर विशेष प्रभाव पड़ता है।
अथर्ववेद के काण्ड- 3 सूक्त - 12 में गृह निर्माण विषय का वर्णन किया गया है। घर के लिए स्थान भी योग्य, रमणीय एवं आरोग्यकारक होना चाहिए। जैसा कि कहा गया है-
"क्षेमे तिष्ठति घृतमुक्षमाणा."
भावार्थ यह कि सुरक्षित, शान्तिदायक, सुखकारक, आरोग्यदायक तथा निर्भय - ऐसा स्थान गृह हेतु होना चाहिए।
आपके मन में उपर्युक्त विचारों से यह भावना अवश्य जागृत होती होगी कि वास्तुशास्त्र के नियमानुसार गृह-निर्माण करने पर क्या हमें कभी कोई कष्ट नहीं होगा ? सच तो यह है कि प्रारब्धजनित सुख-दुःख एवं वास्तु या कुवास्तुजनित सुख-दुःख दोनों अलग-अलग विषय हैं। दु:ख, पराभव की अनुभूति उनको भी वैसी ही होती है, जिनका गृह- निर्माण वास्तुसिद्धान्तानुरूप हुआ है। कुवास्तुजनित कष्ट वास्तुशास्त्रानुरूप किए गए निर्माण से तो अवश्य दूर हो जाता है, मगर भाग्य (जिसे प्रारब्ध, नियति भी कहते हैं) जनित कष्ट तो जन्म कुंडली चक्रानुसार ही दूर या भोगने होंगे। प्रारब्ध का भोग जहाँ भी, जैसा भी हो समाधान भी उसी अनुसार ही किया जाना चाहिए।
"अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्" ।
प्रारब्ध यदि अच्छा हो तो कुवास्तुजनित प्रतिकूलता भी अनुकूल हो जाती है, और अगर प्रारब्ध ठीक न हो तो सुवास्तुजनित अनुकूलता भी प्रतिकूलता- सी परिलक्षित होने लगती है।
विमर्शात्मक सारांश यह कि मनुष्य को अपनी तरफ से कभी भी अमर्यादित ढंग से गृह का निर्माण-कार्य नहीं करना चाहिए। हमेशा वास्तुशास्त्र का सम्मान करते हुए कुवास्तुजनित दोष को दूर करने की इतिकर्तव्यता निभानी ही चाहिए। आत्मिक शान्ति हेतु गीता का यह संदेश स्मरण योग्य है। यथा—
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" ।
भावार्थ यह कि मनुष्य को कर्म करने का ही अधिकार है। उसे फल की इच्छा नहीं करनी चाहिए; अर्थात् मनुष्य को कर्मफल का हेतु भी नहीं बनना चाहिए और न ही कर्म न करने की आसक्ति का शिकार ही होना चाहिए।
अतएव कर्त्तव्य, अकर्तव्य कर्म का ज्ञान शास्त्र से ही सम्भव है। इसलिए शास्त्रसम्मत कर्म का प्रतिपादन होने से प्रायः मनुष्य सुखमय जीवन व्यतीत करता है।
धन्यवाद,
प्रणाम,🙏🙏🙏
ज्योतिर्विद एस एस रावत
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