वट सावित्री मान्यता एवं महत्व :
वट सावित्री व्रत सौभाग्य की कामना और संतान प्राप्ति की दृष्टि से बहुत ही शुभ फलदायी होता है। इस दिन वट वृक्ष और सावित्री-सत्यवान का पूजन किया जाता है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है। सनातन धर्म में वट सावित्री व्रत का विशेष महत्व बताया गया है। त्रिदेवों के द्वारा वट वृक्ष को अलौकिक वरदान प्राप्त है।धार्मिक ग्रंथ के अनुसार वट वृक्ष के नीचे बैठकर पूजा करना और वट सावित्री व्रत की कथा सुनने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। तथा वट वृक्ष को निरोगी काया, ज्ञान, बुद्धि और दीर्घायु का पूरक माना जाता है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। अतः जो सुहागन स्त्री वट सावित्री व्रत करती है और बरगद के वृक्ष की पूजा करती है उसे अखंड सौभाग्य का फल मिलता है और उसके सभी कष्ट दूर होते हैं। तथा वैवाहिक जीवन सुखी, मधुर रहता है।
वट सावित्री की कथा :
भद्र देश के एक राजा थे, जिनका नाम अश्वपति था। भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी। सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने के कारण से कन्या का नाम सावित्री रखा गया। कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान हुई। योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा।
सावित्री तपोवन में भटकने लगी। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे, क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।
ऋषिराज नारद को जब यह बात पता चली तो वह राजा अश्वपति के पास पहुंचे और कहा कि हे राजन! यह क्या कर रहे हैं आप? सत्यवान गुणवान हैं, धर्मात्मा हैं और बलवान भी हैं, पर उसकी आयु बहुत छोटी है, वह अल्पायु हैं। एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। ऋषिराज नारद की बात सुनकर राजा अश्वपति घोर चिंता में डूब गए। सावित्री ने उनसे कारण पूछा, तो राजा ने कहा, पुत्री तुमने जिस राजकुमार को अपने वर के रूप में चुना है वह अल्पायु हैं। तुम्हे किसी और को अपना जीवन साथी बनाना चाहिए।
पिता ने सावित्री को काफी समझाया लेकिन उन्होंने कहा कि वह सिर्फ़ सत्यवान से ही विवाह करेंगी और किसी से नहीं। सत्यवान अपने माता-पिता के साथ वन में रहते थे। विवाह के बाद सावित्री भी उनके साथ में रहने लगीं। सत्यवान की मृत्यु का समय पहले ही बता दिया था इसलिए सावित्री पहले से ही उपवास करने लगी। जब सत्यवान की मृत्यु का दिन आया तो वह लकड़ी काटने के लिए जंगल में जाने लगा। सावित्री ने कहा कि आपके साथ जंगल में मैं भी जाऊंगी। जंगल में जैसे ही सत्यवान पेड़ पर चढ़ने लगा तो उनके सिर पर तेज दर्द हुआ और वह वृक्ष से आकर नीचे सावित्री की गोद में सिर रख कर लेट गए। कुछ समय बाद सावित्री ने देखा कि यमराज के दूत सत्यवान को लेने आ गए हैं। यमदूत सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे सावित्री भी उनके पीछे पीछे चलने लगी तभी यमराज ने देखा कि सत्यवान के पीछे उसकी पत्नी सावित्री आ रही है। तब यमराज प्रगट होकर सावित्री को रोकने लगे और कहा कि तुम्हारा साथ सत्यवान के साथ सिर्फ पृथ्वी / धरती तक था। तुम सत्यवान साथ नहीं जा सकती हो। सावित्री ने कहा मेरा पति जहां जाएगा मैं वही उनके पीछे जाऊंगी, यही पत्नी का धर्म है। यमराज सावित्री के पतिव्रता धर्म से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सावित्री से कहा तुम एक वरदान मांग लो, सावित्री ने अपने सास-ससुर की आंखों की रोशनी मांगी, यमराज ने तथास्तु कहा और आगे बढ़ने लगे पुनः देखा की फिर से सावित्री पीछे से आ रही है। यह देख भक्ति भाव से यमराज ने फिर एक और वरदान मांगने को कहा तब सावित्री ने कहा कि मैं चाहती हूं मेरे ससुर का खोया हुआ राजपाट वापस मिल जाए। यमराज तथास्तु कह कर आगे बढ़ने लगे पुनः पीछे देख इस बार भी सावित्री आ रही थी और यमराज ने फिर से एक वरदान मांगने के लिए कहां तब उन्होंने कहा कि मुझे सत्यवान के 100 पुत्रों का वरदान दें। यमराज इस बार भी तथास्तु कह कर स्वयं आश्चर्य में पड़ गये की यह मैंने क्या वरदान दे दिया क्योंकि सत्यवान के प्राण यमराज ले जा रहे थे। सावित्री की भक्ति के शक्ति के आगे यमराज भी खुश होकर सत्यवान के प्राण लौटा दिए। सावित्री लौटकर वृक्ष के पास आई और देखा कि सत्यवान जीवित हो गए हैं। वह उसे साथ लेकर सास-ससुर के पास पहुंची तो उन्हें नेत्र ज्योति प्राप्त हो गई, तथा उनका राज्य उन्हें वापस मिल गया।
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