गार्हस्थ जीवन जीने के लिए प्रत्येक मनुष्य को देश-कालानुरूप गृह-निर्माण करना आवश्यक होता है। इसी निर्माण के तहत स्थायित्व, संवर्धन, कुटुम्बिया आवागमन, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संरचनाओं का आदान-प्रदान आदि होता है। सृजनात्मक प्रवृत्तियों में नवीनता आती है। विविध कलाकृतियों का एकीभूत केन्द्रीयकरण होता है। इन्हीं विविध सृजनात्मक कलाओं के फलस्वरूप उत्तम गृह का निर्माण सम्भव हो पाता है। उत्तम गृह का निर्माण तभी सम्भव है, जब उत्तम गृहस्थ भी हों। उत्तम गृहस्थ के गुणों का वर्णन महर्षि व्यास ने बहुत सरल ढंग से इस प्रकार किया है-
दया श्रद्धा क्षमा लज्जा प्रज्ञा त्यागः कृतज्ञता । गुणा यस्य भवन्त्येते गृहस्थो मुख्य एव सः ॥
अर्थ यह है कि जिसमें दया, क्षमा, लज्जा, उत्तम विवेकपूर्ण बुद्धि, त्याग, आदर भाव ये सभी गुण विद्यमान हों, वही मनुष्य मुख्य गृहस्थ है। अथर्ववेद में कहा है कि जो गृहस्थ है उसको घर बनाना आवश्यक है। घर घास-फूस की बनी झोंपड़ी हो या अन्य वस्तुओं से निर्मित विशाल भवन, किन्तु घर बनाना एक गृहाश्रमी हेतु अति आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं होता है तो गृहस्थ का 'गृह - स्थ - पन' ही नहीं सिद्ध हो सकता। शास्त्रों में कहा भी है कि सभी आश्रमों में प्रधान गृहस्थाश्रम ही है और इसमें रहने वाले स्वामी अत्यधिक पुण्यवान् होते हैं। यथा-
सर्वेषामाश्रमाणाञ्च प्रधानः पुण्यवान् गृही।
अतः गृह-निर्माण से सम्बन्धित बहुत सी बातें कही गई है। गृहस्थों के घर बड़े-बड़े कमरे तथा बड़ी-ऊँची छत से युक्त होने चाहिए; क्योंकि ऐसे गृह में निवास करने वाले गृहस्वामी का हृदय, उसकी भावना, उसकी सोच एवं आकांक्षाएँ बड़ी होती हैं। गृह-निर्माण सङ्कुचित स्थान में, या गृहकक्षा (कमरा) सङ्कुचित नहीं बनाना चाहिए । सङ्कुचित स्थान या कमरे में रहने वालों की भावना, उसके विचार और प्रभाव भी सङ्कचित होते जाते हैं। ऐसा गृहस्वामी कभी भी प्रभावोत्पादक विचार, सांसारिक- सामाजिक एवं पारिवारिक व्यवहारजन्य विषयों का सम्यक् प्रतिपादन नहीं कर पाता हैं। और अन्ततः असफल गृहस्वामी बन कर रह जाता है। इस हेतु घर का आकार
बड़ा होना चाहिए। बड़े घर में इष्ट मित्र और अतिथियों के आवागमन एवं ठहरने की व्यवस्था भी सुनिश्चित होनी चाहिए। ऐसा ही गृह, गृहस्थाश्रम में उत्तम कहलाता है। इस तरह के निर्माण से गृहकर्त्ता का सम्मान भी बढ़ता है और वह सामाजिक एवं पारिवारिक स्तर पर आदरणीय होता है।
इस प्रकार गृहस्थी से जुड़े पालतू पशुओं एवं पक्षियों के हेतु भी पशुशालादि का निर्माण, गृह निर्माण से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसीलिए तो हमारे पूर्वज गृहनिर्माण में समान संहिता का आचरण करते हुए गृहस्थाश्रमयुक्त गृह का निर्माण सदा-सदा से करते आ रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने इतना तक कह दिया है। कि गृहस्थों के द्वारा की गई सम्पूर्ण क्रिया आदि अपने द्वारा निर्मित गृह में न हो तो वो सभी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं, और इनकी समस्त ऊर्जा से निःसृतः सारभूत फल उस गृहकर्ता (मकान मालिक) को मिलता है जिसके गृह में रह कर उपर्युक्त क्रिया की गई हो।
समीक्षात्मक दृष्टि से देखा जाए तो गाँव-शहर दोनों जगह गृहस्थाश्रम से सम्बन्धित उपयोगी वस्तु का विन्यास व्यक्ति को करना ही पड़ता है। यदि यही विन्यास, यही परिश्रम अपने निजी घर के निर्माण में किया जाए तो बहुत सुगमतापूर्वक भवन का निर्माण भी हो जाएगा और समस्त क्रियात्मक फल का नियोग गृहकर्त्ता के रूप में भी मिलेगा। इसीलिए गृहस्थों के समस्त श्रौत स्मृति कर्म अपने गृह के बिना अन्यत्र कभी सिद्ध नहीं होते। यथा-
गृहस्थस्य क्रियाः सर्वा न सिद्ध्यन्ति गृहं विना ।
ऐसा कह कर महर्षि व्यास ने मनुष्य में सुप्त भावना, सङ्कल्पशक्ति को ललकार कर जागृत एवं क्रियाशील होने का अवसर प्रदान किया है।
ऊपर हमने बतलाया है कि गृहस्थाश्रम में गोशाला, अश्वशाला, राजशाला आदि की भी आवश्यकता होती है; किन्तु यहाँ इससे अतिरिक्त शालाओं करना चाहूँगा जिनकी आज के परिप्रेक्ष्य में आवश्यकता भी है। जो लोग शहर में रहते हैं उन्हें कृषिकार्य की आवश्यकता तो होती नहीं, उन्हें सवारी के लिए घोड़े हाथी के स्थान पर आधुनिक वाहन रखने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में ऐसे गृहस्वामी को यह आवश्यक हो जाता है कि गृह निर्माण के साथ ही वाहनशाला (गॅरेज) का निर्माण वास्तुशास्त्र के निर्देशानुकूल ही करे। ऐसा करने से सवारी उत्तम स्थिति में रहती हुई कभी भी दुर्घटनाग्रस्त नहीं होगी और सवारी गाड़ी में अभिवृद्धि होनी भी निश्चित होगी।
वैदिक कालीन गृहस्थाश्रम एवं आज के गृहस्थाश्रम की स्थापना में कोई खास अन्तर नहीं दिखाई देता। आज भी लोग सुख-शान्ति, समृद्धि, आपदामुक्त एवं पुत्र- पौत्रादिजन्य सुखों की कामना गृह-निर्माण के साथ करते ही हैं और वैदिक कालीन युग में भी यही कामना की जाती थी।
अथर्ववेद के तृतीय काण्ड सूक्त द्वादश में गृह निर्माण से सम्बन्धित 1 से 9 ऋचाओं में समस्त सांसारिक, पारिवारिक एवं सामाजिक गुणों-अवगुणों का वर्णन किया गया है। सफल गृहस्वामी के लिए गृह निर्माण से उत्पन्न समस्त गुणों का भोग करने हेतु यदि एक ओर कामना की गई है तो दूसरी ओर उसे दिशा-निर्देश कहें या हिदायत भी बहुत स्पष्ट ढंग से दी गई है।
इस तरह गृहस्वामी को सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए कि घर ऐसे स्थान में बनाए जहाँ सूर्य, चन्द्र, वायु, इन्द्रादि देवों से सहायक शक्तियाँ विपुल प्रमाण में प्राप्त होती रहें। भाव यह कि घर पर सूर्य का प्रकाश अत्यधिक पड़ने से उसमें निवास करने वाले लोग आत्मिक शक्ति से सम्पन्न एवं निरोग होंगे। चन्द्रमा की शीतल चाँदनी से नहाते हुए घर के लोग स्थिरमना होंगे और इनके द्वारा किए गए कृषिकार्य से फसल समुन्नत होगी। घर में वायु का सञ्चरण निर्वाध रूप से होता रहे इसका भी ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है। शुद्ध वायु से ही अन्तःकरण शुद्ध होता है और घर के लोग आरोग्य लाभ करते हैं। इन्द्र वृष्टि द्वारा गृहस्थाश्रम योग्य अन्नादि शस्यों को पुष्ट एवं सुस्वादु बनाते हैं।
अतएव गृह-निर्माण हेतु ऐसे स्थान का चयन किया जाए जो अनुरूप हो; साथ ही सूर्यादि देवताओं द्वारा प्रदत्त शक्तियों की सहायता अनवरत वास्तुशास्त्र के मिलती रहे, भूमि उपजाऊ हो, वायु निर्दोष हो, जल आरोग्यदायक और पचने योग्य हो। इस प्रकार के उत्तम क्षेत्र या स्थान में गृह का निर्माण करना चाहिए।
विमर्शात्मक सारांश के रूप में यही कहा जा सकता है कि प्रत्येक मनुष्य हेतु पुरुषार्थ-स्वरूप गृह-निर्माण का कार्य आवश्यक है, तभी एक सफल एवं सुदृढ़ गृहस्थाश्रम की परिकल्पना सिद्ध हो सकती है।
धन्यवाद,
प्रणाम,🙏🙏🙏🏻
ज्योतिर्विद एस एस रावत
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