मेरे व्यक्तिगत मतानुसार इच्छा दो प्रकार से जन्म लेती है, पहला कारण शरीर है। शरीर कर्मेंद्रिय, ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार के कारण यह इच्छा प्रगट होती है। वास्तव में यह इच्छा जन्म से तथा कालखंड के अनुसार होती है। इच्छा का दूसरा कारण भौतिकता है, यह बाह्य कारणों से उत्तपन्न होती है इसके अनेक कारण होते है जैसे देश, काल व परिस्थिति इन दोनों इच्छाओं की एक समान रूप से सकारात्मक मन या नकारात्मक मन के विचार और मस्तिष्क की गणना के उपरांत उत्त्पन व्याकुलता और अनुभूति ही इच्छा है, जिसको आप क्रमशः अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से देख सकते है। यदि इच्छा पूर्ति के परिणाम की बात कहुँ तो यह सुख या दुःख के रूप में दिखाई देती है, तथा यह सकारात्मक मन और नकारात्मक मन के ऊपज के उपरांत व्यक्ति सुख अथवा दुःख का अनुभव करता है। और ध्यान देने योग्य बात यह है कि पुनः सुख भी दुःख में परिवर्तित होने का कारण बन जाता है। अथार्त हम यह कह सकते है, सुख- दुःख प्रायः एक दूसरे को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जन्म देते है।
इच्छा के अनेकानेक जीवन उपयोगी कार्य भी है बिना इनके कुछ नहीं हो सकता है जिस प्रकार मन के साथ बुद्धि का समन्वय होता है ठीक उसी प्रकार इच्छा के साथ शक्ति का भी समन्वय होता है। अथार्त इच्छा शक्ति से व्यक्ति असाधारण कार्य कर सकता है। जैसे रोग को आरोग्य, शिक्षा, संगत, कर्म आदि कोई भी कार्य को दक्षता से परिपूर्ण कर सकता है। और इच्छा शक्ति ही विषम परिस्थिति के समय साहस, धैर्य और शक्ति प्रदान करती है। तथा व्यक्ति चाहे तो इच्छा शक्ति से सर्व शक्तिमान तक बन सकता है।
व्यक्ति विशेष इच्छा शक्ति को किस दिशा में लेकर जाता है तथा परिणाम उसी के आधार से निर्धारित रहता है, अतः इसका विशेष ध्यान देना चाहिए।
इच्छा से मुक्त कैसे हो सकते है?
मनुष्य की इच्छा से मुक्ति नहीं हो सकती है, शरीर व प्राण (आत्मा ) से बनकर सभी यौगिक क्रिया, प्रक्रिया से शरीर की इच्छाएं होती है, उनसे मुक्ति संभव नहीं है क्योंकि पञ्च तत्त्व से बना यह शरीर की अपनी इच्छाएं है, इस देह को जीवन देने के लिए, देह की इच्छा पूर्ति पञ्च तत्वों से बनी विषय, वस्तु से करनी पड़ती है। ऐसा करना देह के लिए उचित और उपयुक्त रहेगा। देह की यह स्वभाविक क्रिया है इस क्रिया को रोकना गलत होगा तथा की गई गलती किसी अन्य क्रिया या प्रतिक्रिया में परिवर्तित होकर किसी घटना का परिचायक बनेगा। यदि फिर भी इच्छा मुक्ति का ही प्रश्न हो तो पुनः यह कहूँगा कि व्यक्ति अल्प सीमा तक अल्प विषयों को नियंत्रण में रख सकता है।
यदि भौतिक रूप से इच्छा मुक्ति चाहते है तो मनुष्य इस इच्छा को पूर्ण मुक्त कर सकता है। किन्तु इच्छा पूर्ण मुक्त करने से पुनः व्यक्ति को अनेक कष्ट शुरू हो जाएँगे अतः संतुलन ही स्थिरता को इंगित करती है इसलिए पुनः यह विचार करने योग्य रहेगा तथा देश, काल, परिस्थिति का अवलोकन कर निर्णय लें। अतः इच्छा को मुक्त कहना ही असत्य होगा क्योंकि इच्छा मुक्ति नहीं हो सकती है
क्या संतोष और संतुष्टि एक है ?
संतोष और संतुष्टि शब्द को पढ़ने में एक जैसे प्रतीत होते है, समान रूप से एक जैसे अर्थ महसूस होते है, लेकिन इनका उदगम बेहद रोचक है, आईये इसको समझते है। संतोष अपरिवर्तनशील है, जबकि संतुष्टि में बदलाव देखा जा सकता है। अथार्त संतुष्टि असंतुष्टि में भी परिवर्तन हो सकती है।
संतोष में त्याग की भावना को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, जबकि संतुष्टि भोग उपभोग करने के बाद दिखाई पड़ती है। संतोष किसी कार्यादि से पहले, और संतुष्टि कार्यादि के बाद प्रगट होती है। जैसे :
मान लीजिए कोई व्यक्ति किसी भी प्रकार के तनाव, व्याकुलता आदि में हो तो संतोष वाले व्यक्ति को तनाव कभी हस्तक्षेप भी नहीं कर सकता, जबकि संतुष्टि पाने के लिए व्यक्ति को तनाव से सम्बंधित विषय, वस्तु, सामग्री आदि मिलने तथा उनका भोग उपभोग करने के दौरान मन मष्तिष्क में जो आनंद की अनुभूति प्राप्त होगी, और उसके उपरांत जो मन और मस्तिष्क से उत्पन्न विचार होंगे उनको ही संतुष्टि कहते है।
विशेष : उक्त सभी तथ्यों का आंकलन कर और पुनः सुख, दुःख, जिम्मेदारी, संघर्ष, भौतकवाद, आधुनिक परिदृश्य, स्वास्थ, शिक्षा विवाह, वैवाहिक जीवन आदि को ध्यान में रख एवं देश, काल, परिस्थिति का अवलोकन कर पुनः आपके लिए जो विषय उचित उपयुक्त है उसके अनुसार आपको अवसर का लाभ लेना चाहिए।
प्रणाम, ज्योतिर्विद एस एस रावत
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