जब तक अहंकार और अहम् (स्वंय के होने का बोध) होते हैं तब तक ईश्वर की पहचान नहीं होती है। वास्तविकता समझ नहीं आती है, बोध ही बोध को भटका देता है, और जब तक वास्तविक बोध होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, अंत में स्वयं भी नहीं और स्वयं का अहम् - अहंकार भी शेष नहीं रह जाता है, यदि स्वयं को वास्तविक बोध के लिए नियुक्त किया जाता और अहम्- अहंकार को भी उस वास्तविक बोध को पाने में लगा दिया होता तो आज उसी बोध से कुछ और ही आनंद हो रहा होता।
जीवन जीने के लिए है, आप कैसा जीवन जीते है यह आप से निर्भर रहता है, क्या आपने उस बोध को पाया जिसका बोध आपको हुआ था ? या फिर अभी बोध होना बाकि है, जो बोध आपको मिला उसी बोध से आपका यह चरित्र निर्माण हुआ है, यही कारण है अब आप भाग रहे है, क्या आपको भागना अच्छा लगता है ? ठहरकर सोचना नहीं ? थोड़ा विश्राम किये होते तो आपको पता चलता पीछे क्या छूट गया है, विश्राम ही तो है जिससे मिलकर आप वास्तविक बोध तक पहुंचने का रास्ता बना सकते थे, इसी के लिए तो यह जीवन बना है।
अब क्या ? एक दिन आप विवश विश्राम लेंगे और आपको लेना ही पड़ेगा, स्वयं विवश होकर वास्तविक बोध अनुभूत करेंगे लेकिन अब लक्ष्य पूरा करने का समय जा चुका है क्योंकि अब अनुभव तो है, परन्तु जमीन हाथ से निकल चुकी है, ऐसे अनुभव का क्या जिसको अब आगे ले नहीं जा सकते है। आखिर अनुभवी विवश शेर भी तो एक दिन मरे जानवर पर ही निर्भर रहता है।
जब व्यक्ति का समय खराब हो तो , ज्ञान भी उसे अज्ञान ही समझ आता है तर्क में भी कुतर्क ढूढ़ लेता है, क्योंकि यह कालचक्र है, कालखंड निकल जाने पर ही समझ आ सकता है, क्योंकि परिणामों का रसपान जो करना बाकि है। कुछ सफलता कुछ
अनुभव देकर अवश्य जायेगा, क्या सफलता पचाकर और अनुभव से मार्ग में प्रकाश कर पाए है ? जबकि दोनों हाथों में लड्डू है - ( सफलता और अनुभव ) फिर भी सफलता से असंतुष्ट और अनुभव से अनुभूत नहीं रहकर, शुरू किये रहते है हर पल खाली हाथ, रोना और गिड़गिड़ाना यही तो मुँह से निकलता है।
समय वास्तविक है , जिम्मेदारी दबे पैर ही आती है , कर्म व्यक्तिगत करना पड़ता है और समाज की प्रतिक्रिया सामूहिक ही होती है। जीवन इसी में उलझा हुआ है, रास्ते आड़े, तिरछे है, जो रास्ता पहले दिख जाय उसी में जाना शुरू कर देते है, आधा रास्ता पहुंचने पर पता चलता है, यह रास्ता तो लक्ष्य पर पहुंचने वाला नहीं है, फिर क्या यही क्रम चलता रहता है। भटक - भटक कर स्वयं अटक जाते है, स्थिति यहाँ पहुंच जाती है कि अब अपने ही परछाई से पूछने लग जाते है कि क्या मैं रास्ते में भी हूँ, या मुझे रास्ते के होने का भ्रम मुझमें हो रखा है ?
स्वयं के सपनों को जीवन दीजिए तथा देखा देखि करने के बजाय या दूसरे क्या कह रहे है, इसके बजाय स्वयं की दृष्टि, उद्देश्य और लक्ष्य को पाना ही नहीं है बल्कि उन सपनों को जीना है, जो आपने एक गठरी में बांधकर, वर्षो से कंधो में रख कर ढोते आ रहे हो, स्वयं के सपनों का जीवन जीने के लिए पर्याप्त बहादुर बनो। परिवर्तन ही इस संसार का नियम है, किसी भी परिवर्तन से घबराएं नहीं बल्कि उसे स्वीकार करें । कुछ परिवर्तन आपको सफलता दिलाएंगे तो कुछ सफल होने के गुण सिखाएंगें। जीवन आनंद लेने के लिए है।
सफल लोग अपने निश्चय से संसार बदल देते है
असफल लोग संसार के डर से अपने निश्चय बदल देते है।
सच्चाई को गवाह की जरुरत नहीं होती है, समय ( कर्म ) ही उसका गवाह बन जाता है। समय को आने में समय जरूर लग जाता है। और ऐसा भी होता है, वृक्ष भी वृक्ष लगाने वाले को फल नहीं दे पाता है, इसी को कहते है कर्म फल शेष जो अगले जन्म में भाग्य शेष बनकर लौटता है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं कि वृक्ष से फल मिलेंगे ही नहीं, इतिहास गवाह है, दादा - दादी के अच्छे कर्मो से सम्पूर्ण कुटंब फलता फूलता है और उसका लाभ लेता है।
डर से विवेक नष्ट होकर शंका में परिवर्तित हो जाती है, पुनः शंका अविश्वाश को जन्म देती है। शंका और अविश्वाश आपस में मिलकर विषय, वस्तु, समय, व्यक्ति आदि को खो देती है। पुनः अब तीन होकर डर, शंका और अविश्वास मन, शरीर और धन पर दृष्टि रख उसको नष्ट करने में जुट जाते है, यदि इसको रोका नहीं गया तो यह आगे बढ़कर व्यक्ति के प्राणों तक आ पहुँचती है।
हो सकता है, सवाल अब यह हो जाए कि अकेला व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता है। अकेला क्या कर सकता है। ऐसा आपने सुना ही होगा। लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। व्यक्ति का जन्म, शिक्षा,विवाह मृत्यु आदि सब अकेले ही होती है। यहाँ तक की भोजन का निवाला भी अकेले ही लेता है, धन भी अकेला ही लेता है आदि। फिर कार्य के लिए इतने बहाने क्यों ? क्या स्वयं की कोई कमजोरी छुपानी है ? थोड़ा सोचिए, अगर कार्य अकेले नहीं होते , तो आज सौरमण्डल में असंख्य सूर्य होते।
काम को किसी गवाह, सबूत, व्यक्ति, दर्पण और मीडिया आदि की जरुरत नहीं, क्योंकि काम स्वयं का ही परिचय, अनुभूति, तृप्ति करा कर ही छोड़ता है। काम वह शक्ति, साहस, आत्मविश्वास है, जिसके आगे डर नाम की कोई चीज़ ठहर नहीं सकती है।
प्रणाम, ज्योतिर्विद एस एस रावत
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