ज्योतिषशास्त्र का काल विवेचनात्मक रूप ही पञ्चाङ्ग है। पंचांग के पाँच अंग तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण का आधार सूर्य और चंद्र है इसके अतिरिक्त सूर्यादि ग्रहो का स्पष्टीकरण, विभिन्न प्रकार के व्रत, पर्व, मुहूर्त आदि।
तिथि :
सूर्य और चंद्र का अंतर ही तिथि है अथार्त सूर्य चंद्र की दूरी अपनी -अपनी कक्षाओं में जब १२ अंशों की हो तो उसको एक तिथि मान ली जाती है। अमावस्या तिथि को सूर्य चंद्र तुल्य राशि अंश कला पर रहते है शीघ्रगतिचन्द्र सूर्य से अपनी दूरी बढ़ाता चला जाता है। १२ अंशो का अंतर होने में जितना समय लगेगा वही काल एक तिथि का मान होता है।
उदाहरण :
एक तिथि = १२ अंश , ३६० अंश = ३० चंद्र तिथियां ( शुक्ल एवं कृष्ण दोनो पक्षों में १५-१५ तिथियाँ )
दो नये चन्द्रोदय के मध्य के समय को 'चन्द्र मास' कहते है और यह लगभग 29.5 दिन के समकक्ष होता है। एक चन्द्र मास में 30 तिथि अथवा चन्द्र दिवस होते हैं। तिथि को हम इस प्रकार भी समझ सकते है कि 'चन्द्र रेखांक' को 'सूर्य रेखांक' से 12 अंश ऊपर जाने के लिए जो समय लगता है, वह तिथि कहलाती है। इसलिए प्रत्येक नये चन्द्र और पूर्ण चन्द्र के बीच में कुल चौदह तिथियां होती हैं। 'शून्य' को नया चन्द्र तथा पन्द्रहवीं तिथि को 'पूर्णिमा' कहते हैं। तिथियां 'शून्य' मतलब अमावस्या से शुरू होकर पूर्णिमा तक एक क्रम में चलती हैं और फिर पूर्णिमा से शुरू होकर अमावस्या तक उसी क्रम को दोबारा पूरा करती हैं तो एक चन्द्र मास पूरा हो जाता है।
आध्यात्मिक विशेषता
सभी तिथियों की अपनी एक आध्यात्मिक विशेषता होती है जैसे -
अमावस्या 'पितृ पूजा' के लिए आदर्श होती है।
चतुर्थी गणपति की पूजा के लिए आदर्श होती है।
पंचमी आदिशक्ति की पूजा के लिए आदर्श होती है।
षष्टी 'कार्तिकेय पूजा' के लिए आदर्श होती है।
नवमी 'राम' की पूजा आदर्श होती है।
एकादशी व द्वादशी विष्णु की पूजा के लिए आदर्श होती है।
त्रयोदशी शिव पूजा के लिए आदर्श होती है।
चतुर्दशी शिव व गणेश पूजा के लिए आदर्श होती है।
पूर्णिमा सभी तरह की पूजा से सम्बन्धित कार्यकलापों के लिए अच्छी होती है।
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