भय कब होता है या भय से पहले क्या होता है? क्या भय हमेशा ख़राब ही होता है ? आइये जानते है। किस प्रकार भय व्याप्त होता है। और किस प्रकार इसके अनेक जन्म होते है। सीधा और एक बात में उत्तर दूँ, तो बिना बोध के भय नहीं हो सकता है। जैसे : सरकार के नियम तोड़ने का बोध होने के उपरांत सजा का भय अथार्त भय अच्छा है। कानून की अवहेलना का बोध होने के उपरांत कोर्ट से सजा का भय, यह भी अच्छा है। फेल हो जाने का बोध होने के उपरांत माता पिता का भय, भय अच्छा है। बेरोज़गारी का बोध होने के उपरांत गरीबी का भय यह भय भी अच्छा है।
भय कैसे भयभीत में परिवर्तित होता है। आइये इसको जानते है। उक्त घटना के बाद परिणाम से उत्त्पन्न भय ही भयभीत में परिवर्तित हो जाता है। जैसे :सरकार के नियम तोड़ने के उपरांत प्राप्त दंड से भयभीत, कानून तोड़ने के उपरांत प्राप्त दंड से भयभीत, फेल हो जाने के उपरांत प्राप्त दंड से भयभीत, बेरोजगार रह जाने के उपरांत प्राप्त गरीबी से भयभीत आदि, आदि।
पुनः उक्त घटना क्रम के बाद अनेक दृष्टिकोण, मनोवृत्ति उत्पन्न हो जाती है। १- कर्ता : ( कार्य करने वाला ) २- करण : ( जिसके द्वारा कर्ता कार्य करता है ) ३- संप्रदान : ( जिसके लिए कार्य किया जाय ) यदि इनमें समन्वय स्थापित नहीं हो तो विघटन की परिस्थिति देखी जा सकती है।
१- कर्ता (कार्य करने वाला) :
कर्ता के विवेकानुसार अब दो विचारों का जन्म होता है। पहला सकारात्मक विचार, दूसरा नकारात्मक विचार।
सकारात्मक :
उक्त कार्य के विफलता के बाद प्राप्त अनुभव से सीख लेकर पुनः अनुशासन में रहकर पूर्ण संयम के साथ कार्य करने लगता है। तथा करण ( जिसके द्वारा कर्ता कार्य करता है )को भी मर्यादित, धैर्यपूर्ण होकर कर्ता को साहस, नीति, नियम का ज्ञान देकर प्रोत्साहित करना चाहिए। करण से कर्ता प्रेरणा लेकर अच्छे भय के साथ, पुनः कार्य सफलता पूर्वक प्राप्त करता है। यह दोनों पक्षों का उत्तम समन्वय कहलाता है। जैसे : कर्ता के सकारात्मक सोच, करण अथार्त सरकार, कानून, परिवार, समाज आदि के सकारात्मक व्यवहार का प्रतिफल है।
नकारात्मक :
उक्त कार्य विफलता के बाद अनुभवहीन और विवेकहीन होकर नकारत्मक भाव को संगठित कर, एक के बाद एक गलत निर्णय कर, गलत संगत में पड़कर, विभिन्न लोगों से, जगहों से बुराई लेता है। नीति नियम कानून की अवहेलना कर, परिणाम स्वरूप बार बार विफ़लता के उपरांत स्वाँग रचने में जीवन व्यतीत करता है। उसको बहुरुपिया भी कह सकते है। अथार्त असमाजिक व विवेकशून्य।
२- करण ( जिसके द्वारा कर्ता कार्य करता है )
करण की बहुत बड़ी भूमिका होती है। कोई भी नियम संतुलित हो, समावेशी हो, समदर्शी हो, न्यायपूर्ण हो, उच्च - नीच की जगह नहीं हो, जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ आदि में भेदभाव नहीं हो। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वैसा व्यक्ति निर्माण नहीं होगा जैसा संप्रदान ( जिसके लिए कार्य किया जाय ) भाव के फल की भावना हो। संतुलन बनाने की सबसे बड़ी भूमिका करण, कर्ता ( माता, पिता, परिवार, समाज, रीति, नीति, नियम, संविधान, सरकार ) आदि की है। क्योंकि जन्म से कोई बुरा अथवा भय लेकर पैदा नहीं होता है।
३- संप्रदान ( जिसके लिए कार्य किया जाय )
यह किसी एक पक्ष की अकेले की जिम्मेदारी नहीं है। सामुदायिक भागीदारी वाले समाज में किसी एक को जिम्मेदार ठहराना पूर्णतः गलत होगा। कर्ता और करण दोनों की ही जिम्मेदारी है कि संप्रदान को ध्यान में रख कर, न्यायोचित निर्णय लेकर, संप्रदान को सफल, उत्तम बनाने में मदद करें तभी संप्रदान कर्ता और करण को मनोवांछित फल देने में सफल होगा।
विशेष :
मित्रो आज हमने भय को जानने का प्रयास किया है। भय बोध के उपरांत ही जन्म लेता है यह जाना और समझा है। तथा भय के कुछ अन्य चरण भी होते है, जैसे मृत्यु भय, रोग भय से उपन्न मानसिक परिस्थितियां और उनके समाधान को समझने का हम फिर कभी प्रयास करेंगे, तब तक सुखी रहिए ,अपना ख्याल रखिये, भयमुक्त रहिए। आपको आज का विषय कैसा लगा, अपने विचार प्रगट कर मेरा मार्गदर्शन कीजिए। धन्यवाद।
प्रणाम, ज्योतिर्विद एस एस रावत
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