आत्मा और शरीर दोनों ही मिलकर जीव का निमार्ण करते है। यों तो इन दोनों की परिभाषा विस्तृत है। लेकिन यहाँ संक्षेप में दोनों के भोज्य सामग्री के बारे में जानने का प्रयास करेंगे।
आत्मा :
परमात्मा का ही एक अंश आत्मा है, आत्मा का उदगम परमात्मा से होकर परमात्मा में ही विलीन हो जाता है। भाव, भावना, अनुभूति, भक्ति, आराधना, उपासना और सदैव परमात्मा को स्मरण कर ऊर्जावान, शक्तिवान रखते हुए कार्य, बात-संवाद, शुचिता का सदैव समरण करके ही जीवन पथ में सदैव विकासशील रहना चाहिए। अथार्त आत्मा को भाव की आवश्यकता होती है। व्यक्ति का भाव जहाँ स्थिर हो जाए , जिस रूप, रंग, धर्म, पंथ, विचार, भावना में स्थिर हो जाय, वह भाव ही आत्मा का उचित उपयुक्त भोज्य सामग्री होता है।
शरीर :
शरीर पञ्च तत्त्व से बना है। शरीर का उदगम पृथ्वी तत्व, जल तत्व, अग्नि तत्त्व, वायु तत्व और आकाश तत्व होकर, पाँचों तत्वों में विलीन हो जाता है। शरीर के भोज्य पदार्थ क्या होने चाहिए ? इसके अनेक मत मतान्तर है। मेरा निजी मत यह है कि शरीर को पाँचों तत्व से बना सभी चीज़ दिया जाना चाहिए। व्यक्ति विशेष की
चीजों ( भोज्य सामग्री ) के प्रति परिभाषा ( अच्छा बुरा ) भिन्न हो सकती है। उक्त अच्छी या बुरी ( परिभाषित ) दोनों ही भोज्य सामग्री शरीर के असंतुलन को संतुलित हेतु भोज्य सामग्री ही उचित उपयुक्त होगा। बहुत बार व्यक्ति धर्म, पंथ के आधार से चयन की प्रक्रिया तय करता है। इस सन्दर्भ में मनुष्य अनेक विचारों में विभक्त है। अतः मेरा पुनः मत यह है कि देश, काल, परिस्थिति के आधार से शरीर को स्वस्थ, ऊर्जावान और शक्तिवान बनाये रखने के लिए, आवश्यक सामग्री का उपभोग कर लेना चाहिए।
आत्मा और शरीर एक ही होने के तथापि, दोनों के भोज्य सामग्री भिन्न भिन्न है। अतः आत्मा और शरीर की टिका टीपकर्णी करने के बजाय, यह समझ लेना चाहिए कि भोज्य पदार्थ विश्लेषण का विषय ही नहीं है। तथा आचरण, व्यवहार, आदर्श, पुरुषार्थ, ज्ञान, विवेक, ईमानदारी आदि। एवं कर्म, कार्य, बातचीत, जीवनयापन आदि के अवधिकाल में आत्मा को मध्य रख कर, परमात्मा को स्मरण करते हुए, जो भाव प्रगट हो, उसी से समग्र कार्यादि किये जाने चाहिए।
शरीर को अलग और आत्मा को अलग, समझ कर ही आवश्यकताओं के विचारभाव ( ख्याल ) रखना चाहिए। क्योंकि इनके उदगम और फिर विलीन होने के स्थान भिन्न भिन्न है। जैसे सामग्री नष्ट होती है, जबकि भाव नष्ट नहीं होते, शरीर नष्ट होता है, आत्मा नष्ट नहीं होती। इसलिए दोनों के आवश्यकताओं की पूर्ति भी भिन्न भिन्न ही समझना उचित उपयुक्त होगा अथार्त दोनों को मिलाकर देखना ठीक नहीं होगा।
जीव की मृत्यु के उपरान्त शरीर पञ्च तत्व में विलीन और आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है। अथार्त मृत्यु के उपरांत भी संयुक्त नहीं है तो फिर जीवनभर व्यक्ति नियम बनाकर सीमित सोच में उस शरीर को जीवन क्यों दिया।
भाव क्या है :
मूर्खो वदति विष्णाय धीरो वदति विष्णवे। तयोः फलं तु तुल्यं हि भावग्राही जनार्दनः।।
अर्थ :
मूर्ख कहता है विष्णाय नमः जोकि अशुद्ध है और ज्ञानी कहता है विष्णवे नमः जो व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है। लेकिन दोनों का फल एक ही है। क्योंकि भगवान शब्द नहीं भाव देखते हैं।
प्रणाम, ज्योतिर्विद एस एस रावत
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें