आप सभी रिश्ते जानते है, पहचानते है, बनाते है, निभाते है, इसलिए अधिक इस पर चर्चा नहीं करूँगा। रिश्ते अनेक प्रकार के होते है। जैसे रक्त के रिश्ते, शादी आधारित रिश्तेदारी के रिश्ते, सामाजिक रिश्ते, सहयोगी, सहकर्मी के रिश्ते आदि किन्तु आज हम आपको एक नया रिश्ते के बारे में जानकारी देने का प्रयास करेंगे। उस रिश्ते का नाम है ओरा ( आभा ) का रिश्ता, मेरे अनुभव में यह रिश्ता सबसे अधिक जीवन जीने योग्य रिश्ता होगा। उचित उपयुक्त होगा। हम सब ने अक्सर लोगों द्वारा किसी साधु, संत, बाबा, ज्ञानी, विद्वान व्यक्ति को यह कहते सुना है कि आपके श्रीचरण हमारे घर में, हमारे झोपड़ी में, हमारे कुटिया में, हमारे गरीब खाने में पड़ जाएं तो हम धन्य हो जाएँगे। यह क्या है ? क्या यह मात्र आदर सत्कार है, उस व्यक्ति के प्रति समर्पण भाव है, या इसमें कोई ज्ञान, विज्ञान है। इसका पूरा जवाब आपको आज मिलने वाला है। इसलिए संक्षिप्त लिखी बातों को विस्तृत समझ कर लाभ लें।
नागा साधु धुनि लगाकर तापते है और राख को शरीर में लगाते है। यह क्या कोई अंधविश्वास है ? मूर्ति के आगे धूप, दिया, कपूर, जलाकर जो आरती किया जाता है उसका शारीरिक, मानसिक लाभ उस व्यक्ति को ही मिलता है अन्य को नहीं, क्या यह अंधविश्वास है ? या कोई ज्ञान विज्ञान है।
ऐसा क्यों होता है :
आप अनेक लोगों से मिले होंगे, आपके कार्यालय में भी अनेक लोग होंगे, आप समाज में भी लोगों से मिलते होंगे, आप यात्रा के दौरान लोगों से मिले होंगे। आप पारिवारिक, सामाजिक रिश्तों से भी ओत प्रोत है। सभी जगह आपने देखा होगा कि उम्र कम या ज्यादा, पद, प्रतिष्ठा कम या ज्यादा, जाति, धर्म, पंथ भी भिन्न भिन्न होने के उपरांत भी आप उपरोक्त कम वाले व्यक्ति से अधिक संतुष्ट, सुखी, ऊर्जावान आदि महसूस करते होंगे जबकि आपके समकक्ष अथवा अधिक संसाधित, उपाधित, प्रतिष्ठित व्यक्ति के साथ इसका विपरीत महसूस करते होंगे। या फिर इस पुरे वाक्य के विपरीत होता होगा। अब आपको यह भी समरण हो रहा होगा कि अमुख व्यक्ति सामाजिक अथवा पारिवारिक रिश्ते में नहीं होते हुए भी आप उससे मिलकर संतुष्ट, सुखी, ऊर्जावान आदि महसूस करते होंगे, और इसके विपरीत सामाजिक, पारिवारिक, व्यक्ति विशेष से मिलकर मन दुखी, ऊर्जा का अभाव, मन घबड़ाहट में हो जाता होगा। तथा उस रिश्ते से, काम से काम की बात कह कर, स्वयं को उस व्यक्ति से दूर कर देते होंगे। आपने यह भी देखा होगा कि आपके व्यवहार में कोई कमी नहीं थी। फिर भी आपको उस रिश्ते में घुटन महसूस होती है।
अदृश्य रिश्ता :
ऊर्जा दो प्रकार की होती है। नकारात्मक और सकारात्मक, वस्तुतः यह उसी ऊर्जा के द्वारा उपन्न हुई स्थिति है। और अब हम यह कह सकते है कि परिवार, समाज व वैवाहिक रिश्तों में या इन सभी से बाहर जाति, धर्म, पंथ आदि में जाकर भी व्यक्ति के स्वभाव, आदर्श, प्रकृति, नियम, शरीर में उपलब्ध गुण आदि के अनुकूल या समानन्तर प्राप्त ओरा ( आभा ) ही अदृश्य रिश्ता है। यह रिश्ता ही जीवन जीने के लिए उचित उपयुक्त होता है। यही कारण था। सकारात्मक ऊर्जा प्रधान व्यक्ति, विद्वान, ज्ञानी, साधु, संत आदि को कहा जाता है। कि आपके चरण मेरे घर में पड़ जाएं तो हम धन्य हो जाएँगे। घर, प्रतिष्ठान आदि में भी यह नियम लागू होता है। यदि घर अथवा प्रतिष्ठान में अनुकूल ओरा ( आभा ) का संचार हो तो उचित फल प्राप्ति होती है। सकारात्मक ऊर्जा किसी भी आयु वर्ग में हो सकती है।
अदृश्य रिश्ते को "ओरा के रिश्ते" का नाम दिया जाय :
सभी तथ्यों का अन्तः करण से आंकलन कर इस निर्णय में पहुँचे है। कि ओरा ( आभा ) के द्वारा बने रिश्ते ही जीवन उपयोगी, उचित उपयुक्त है। फिर चाहे वह रिश्ते का आधार पारिवारिक, सामाजिक, नौकरी, कार्यालय, उम्र, जाती, धर्म, पंथ आदि से हो या अन्यत्र हो। इसीलिए ओरा के द्वारा बना रिश्ता जीवन जीने योग्य रिश्ता माना जायेगा।
ओरा क्या है :
ओरा अथार्त आभामंडल, ओरा ( आभा ) सभी जीव, निर्जीव, पशु, पक्षी, मनुष्य, प्राणी में विद्यमान है, बहुत बार हम नग्न चक्षुओं से भी देख सकते है। जैसे ईश्वर के चित्रों के पीछे दिखाई देने वाला प्रकाश, चंद्र एवं उगते सूर्य के चारों ओर वाला प्रकाश ध्यान से देखने पर गहराई तक गोल दिखाई देता है। अन्य में नग्न चक्षु से देखना संभव नहीं है, परन्तु सृष्टि में ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ ओरा ( आभा ) नहीं हो। जैसे लौहार लोहे को भट्टी में निश्चित ताप से तपाता है, लाल लोहे के चारों तरफ एक धधकती प्रकाश का घेरा होता है, वही उसका ओरा कहलाता है। मिट्टी में भी ओरा होती है, मिट्टी की ओरा का जागृत तापमान, मनुष्यों के शरीर के तापमान के तुल्य होती है। यही कारण था कि प्राचीन समय में मिट्टी के लेप से मनुष्य स्वास्थ चिकित्सा करते थे। जबकि लोहा जिस तापमान में ओरा देने लगेगा उस तापमान को मनुष्य सहने में समर्थ नहीं, अथार्त शरीर को जला देगा। अतः मनुष्य के शरीर के लिए लोहा उपयुक्त नहीं है।
सूर्य किरणों में भी यही सूत्र है, इसीलिए ऋषि, मुनियों ने सूर्योदय काल को ही जल अर्घ देने को कहा है। जिस प्रकार से प्रातः काल में सूर्य के किरण लाभ देते है, और दोपहर में नुकसान देने लग जाते है। ठीक उसी प्रकार ओरा ( आभा ) नकारात्मक और सकारात्मक दोनों ही है। ऊर्जा के नकारात्मक हो जाने के उपरांत शरीर में शारीरिक, मानसिक दोष उपन्न होने लग जाते है। पुनः स्मरण कराना चाहता हूँ कि वेदों, पुराणों, उपनिषद, पांडुलुपियों, ऋषि मुनियों ने तथा ज्योतिष प्रवर्तकों ने उपाय स्वरुप अनेक मार्ग सुनिश्चित किये है। तथा जल, हवा, धरती, अग्नि, ध्यान, मंदिर, योग, वनस्पति, पशु, पक्षी, संगत, सूर्य किरणें आदि के संपर्क में आकर नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार बढ़ाया जाता है।
जैसे : धरती में सुबह नग्न पैरों से चलकर पृथ्वी तत्त्व को, घर में दिया, आरती, हवन आदि से अग्नि तत्त्व को, सूर्य की किरणों को लेते समय वायु तत्त्व को, स्नान से जल तत्व को, ध्यान से मस्तिष्क, मंत्र से मन, आशीर्वाद से सफलता, संगत से प्रेरणा को आदि।
पौराणिक बातों.... व्यवहरिक बातों.... वैज्ञानिक बातों..... का सम्बन्ध बताते हुए जिस प्रकार आपने... स्वयं के सकारात्मक आभा से पहचान करवाया है.... बहुत सुगम... बहुत सुखद है......
जवाब देंहटाएं"सहयोग और विचार" आपके द्वारा निरंतर हम तक पहुँच रही है। यह मेरे लिए सकारात्मक ऊर्जा का सृजन स्रोत्र के रूप में मेरे जीवन दर्शन में स्पष्ट दिखाई दे रहा है। अतः मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ यह आभा का ही प्रतिविंब है।
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